15 अगस्त 1947 से पहले ही आजाद हो गया था UP का बलिया जिला, लेकिन फिर चारों तरफ खून ही खून..

.Independence Day Special: बलिया के नेता जेल में बंद थे. जेल के बाहर हजारों लोग प्रदर्शन कर रहे थे. मजिस्ट्रेट ने नेताओं से कहा कि हम आपको आजाद कर देंगे, बस बाहर खड़े लोगों से कहिए कि शांत हो जाएं. नेताओं ने इसकी गारंटी नहीं दी. बलिया के नेताओं ने किसी तरह की कोई गारंटी नहीं दी. इसके बावजूद, मजबूर प्रशासन ने उन नेताओं को रिहा किया. लेकिन बात यहीं नहीं रुकी...


उत्तर प्रदेश का बलिया जिला (Ballia). इस जिले से जुड़ा एक दिलचस्प किस्सा सुनाता हूं… बगावत के लिए प्रसिद्ध इस जिले ने पूरे देश को आजादी मिलने से पहले, कुछ दिनों के लिए आजादी की हवा (Independence Day) को महसूस किया. क्षेत्रीय नेताओं ने सरकार बनाई. लेकिन इसके एवज में इस जिले ने भारी कत्लेआम की कीमत चुकाई. हुआ यूं कि अपनी फजीहत से बचने के लिए एक अंग्रेजी अधिकारी ने इस इलाके में गजब कत्लेआम मचाया. और सभी नेताओं को पकड़ के जेल में बंद कर दिया. इस घटना की चर्चा BBC रेडियो तक पर हुई.

  देश को आजादी मिली- 15 अगस्त 1947 को. इसके 5 साल पहले चलते हैं यानी कि 1942 में. 9 अगस्त 1942 को ‘भारत छोड़ो आंदोलन’ की शुरुआत हुई. इस आंदोलन में बलिया जिले का योगदान रहा. इस दौरान बंबई में कांग्रेस के कई नेताओं की गिरफ्तारी हुई. गिरफ्तारी की खबर बलिया के लोगों तक पहुंची. अगले दिन बलिया के सभी स्कूल बंद कर दिए गए. स्टूडेंट्स समूह में घूमने लगे और देशभक्ति के नारे लगाने लगे. ये हुई 10 अगस्त की बात.

कोर्ट को बंद करने की मांग
11 अगस्त को जिले के विद्यार्थियों ने एक जुलूस निकाला. ये जुलूस एक सभा की शक्ल में खत्म हुआ. नेताओं ने अंग्रेजी सरकार को चुनौती देने की घोषणा की. परिणाम ये हुआ कि जिले के नेताओं को गिरफ्तार कर लिया गया. मामला और बढ़ गया.

12 अगस्त, 1942 को जिले में विशाल जुलूस निकला. छात्रों ने न्यायालयों को बंद करने की मांग की. इस जुलूस को 100 हथियारबंद सिपाहियों ने रोका. लाठीचार्ज हुआ. कई लोग घायल हुए. बलिया जिले की इस घटना की चर्चा ब्रिटिश संसद में हुई. कहा गया कि बलिया के लोगों ने प्रशासन और न्यायालय का काम ठप कर दिया. टेलीग्राफ और टेलीफोन के तार काट दिए और सेना भर्ती केंद्रों का बहिष्कार किया.उत्तर प्रदेश का बलिया जिला (Ballia). इस जिले से जुड़ा एक दिलचस्प किस्सा सुनाता हूं… बगावत के लिए प्रसिद्ध इस जिले ने पूरे देश को आजादी मिलने से पहले, कुछ दिनों के लिए आजादी की हवा (Independence Day) को महसूस किया. क्षेत्रीय नेताओं ने सरकार बनाई. लेकिन इसके एवज में इस जिले ने भारी कत्लेआम की कीमत चुकाई. हुआ यूं कि अपनी फजीहत से बचने के लिए एक अंग्रेजी अधिकारी ने इस इलाके में गजब कत्लेआम मचाया. और सभी नेताओं को पकड़ के जेल में बंद कर दिया. इस घटना की चर्चा BBC रेडियो तक पर हुई.

पूरे देश को आजादी मिली- 15 अगस्त 1947 को. इसके 5 साल पहले चलते हैं यानी कि 1942 में. 9 अगस्त 1942 को ‘भारत छोड़ो आंदोलन’ की शुरुआत हुई. इस आंदोलन में बलिया जिले का योगदान रहा. इस दौरान बंबई में कांग्रेस के कई नेताओं की गिरफ्तारी हुई. गिरफ्तारी की खबर बलिया के लोगों तक पहुंची. अगले दिन बलिया के सभी स्कूल बंद कर दिए गए. स्टूडेंट्स समूह में घूमने लगे और देशभक्ति के नारे लगाने लगे. ये हुई 10 अगस्त की बात 

कोर्ट को बंद करने की मांग
11 अगस्त को जिले के विद्यार्थियों ने एक जुलूस निकाला. ये जुलूस एक सभा की शक्ल में खत्म हुआ. नेताओं ने अंग्रेजी सरकार को चुनौती देने की घोषणा की. परिणाम ये हुआ कि जिले के नेताओं को गिरफ्तार कर लिया गया. मामला और बढ़ गया.

12 अगस्त, 1942 को जिले में विशाल जुलूस निकला. छात्रों ने न्यायालयों को बंद करने की मांग की. इस जुलूस को 100 हथियारबंद सिपाहियों ने रोका. लाठीचार्ज हुआ. कई लोग घायल हुए. बलिया जिले की इस घटना की चर्चा ब्रिटिश संसद में हुई. कहा गया कि बलिया के लोगों ने प्रशासन और न्यायालय का काम ठप कर दिया. टेलीग्राफ और टेलीफोन के तार काट दिए और सेना भर्ती केंद्रों का बहिष्कार किया.

पैसे लूटे नहीं, जला दिए
इसके बाद बलिया में ब्रिटिश विरोधी गतिविधियों में और तेजी आई. और 13 अगस्त को बेल्थरा रोड रेलवे स्टेशन पर हमला किया गया. इमारतों में आग लगा दी गई. जिले की सरकारी वेबसाइट बताती है कि लोगों ने यहां तिजोरियों में मिले नोट लूटे नहीं बल्कि जला दिए. पानी के पंप और पानी की टंकी को भी तोड़ दिया गया. एक मालगाड़ी को लूट लिया गया, इंजन तोड़ दिया गया. साथ ही पुलिस-स्टेशन और डाकघरों पर भी हमला हुआ.

तिरंगा हटाया तो ‘बवाल’ हो गया
इसके बाद कई दिनों तक ऐसी घटनाएं होती रहीं. 16 अगस्त को रसड़ा कोषागार पर हमला हुआ. इसके दो दिनों बाद बैरिया थाने पर फिर से हमला हुआ. क्योंकि थानेदार ने उस तिरंगे को हटा दिया था जिसे स्वतंत्रता सेनानियों ने 15 अगस्त को उस स्थान पर कब्जा करने के बाद लगाया था. हजारों की संख्या में उग्र भीड़ ने थाने पर हमला किया और झंडा फिर से फहराने के कई प्रयास किए. जिले के कई हिस्सों से सभी उम्र के पुरुषों और महिलाओं के साथ-साथ बच्चों ने भी इसमें भाग लिया.

इसके जवाब में पुलिस ने गोलीबारी कर दी. कम से कम 20 लोग मारे गए और लगभग 100 लोग घायल हो गए. पुलिस कई घंटों तक गोली चलाती रही. तिरंगा फहराने के प्रयास में 20 साल के एक युवक के साथ एक स्थानीय नेता धरमदास मिश्रा और 12 साल के एक लड़के की मौत हो गई. लोगों ने डरने की बजाए थाने पर कब्जे का दबाव और तेज कर दिया. क्योंकि लोग इस गोलीबारी के लिए जिम्मेदार पुलिसवालों को पकड़ना चाहते थे. लेकिन उसी रात बारिश हुई. और अंधेरे का फायदा उठाकर सभी पुलिसवाले भाग निकले. अगली सुबह थाने पर कब्जा कर लिया गया.

अहिंसा की भावना खत्म
इस समय तक स्वतंत्रता सेनानियों ने बांसडीह तहसील मुख्यालय, पुलिस स्टेशन और बीज भंडार सहित जिले के कई दूसरी जगहों पर कब्जा कर लिया था. बैरिया पुलिस स्टेशन और दूसरी जगहों पर अंधाधुंध गोलीबारी ने लोगों को हथियार उठाने के लिए मजबूर कर दिया. इससे अहिंसा की भावना पूरी तरह से खत्म हो गई थी. जिला प्रशासन घबरा गया था क्योंकि जिला तेजी से उनके नियंत्रण से बाहर जा रहा था. और जेल में बंद नेताओं के साथ समझौता करने की उनकी सारी बातचीत विफल हो गई थी. लोग चाहते थे कि जिला प्रशासन के अधिकारी जिला प्रशासन का प्रभार उन्हें सौंप दें. लेकिन जिला मजिस्ट्रेट ने कथित तौर पर कहा कि ऐसी स्थिति में उन्हें फांसी पर लटका दिया जाएगा और उन्हें बर्खास्त कर दिया जाएगा.

वो ऐतिहासिक दिन…’
19 अगस्त, 1942 को हजारों लोग (सरकारी आंकड़े के अनुसार 50 हजार) बंदूक, लाठी, भाला आदि लेकर बाहर निकले. ये सब जेल में बंद अपने नेताओं को आजाद कराना चाहते थे. जब जिला मजिस्ट्रेट को जानकारी मिली तो वो घबरा गए. और जेल में बंद नेताओं से मिलने गए. जिसमें स्थानीय नेता चित्तू पांडे भी शामिल थे. मजिस्ट्रेट ने भीड़ को शांत करने की शर्त पर नेताओं को रिहा करने का ऑफर दिया. लेकिन नेताओं ने कोई गारंटी नहीं दी. मजिस्ट्रेट के पास कोई विकल्प नहीं बचा. इसके बाद उन्होंने नेताओं से कहा कि कम से कम ये ही देख लें कि कोई सरकारी संपत्ति को नुकसान ना पहुंचाए. नेताओं ने इसकी भी गांरटी नहीं दी. मजिस्ट्रेट के पास कोई विकल्प नहीं बचा. इस उम्मीद में कि भीड़ कम से कम सरकारी संपत्ति को बख्श देगी, नेताओं को रिहा कर दिया गया.

लाखों के नोट जला दिए गए
रिहाई के बाद नेताओं ने टाउन हॉल में एक विशाल सभा को संबोधित किया. जिसमें चित्तू पांडे ने लोगों से तोड़फोड़ या इसी तरह की गतिविधियों में शामिल न होने का आह्वान किया. लेकिन इस पर मतभेद था और कई लोगों ने इसका विरोध किया क्योंकि उन्होंने अपने साथियों की क्रूर हत्या देखी थी. और उनकी भावनाएं उग्र रूप से भड़क उठी थीं. इसलिए तोड़फोड़ की गतिविधियां जारी रहीं. छात्रों को पीटने वाले एक पुलिस अधिकारी को पकड़ लिया गया और उसकी पिटाई की गई. सरकार को समर्थन देने वाले सरकारी अधिकारियों के आवासों को लूट लिया गया. विदेशी कपड़े और शराब बेचने वाली दुकानों पर हमला किया गया. जिला मजिस्ट्रेट, जिसे अब तक भरोसा हो चुका था कि खजाना लूट लिया जाएगा, उसने एक डिप्टी कलेक्टर को नोटों की संख्या नोट करने के बाद उन्हें जलाने का निर्देश दिया. 

नेताओं को आश्वासन दिया गया था कि जितना हो सकेगा, शांति व्यवस्था बनाकर रखी जाएगी. और उन पर गोलीबारी नहीं की जाएगी. लेकिन इसके विपरीत 20 अगस्त को एक पुलिस वैन शहर में निकला. और बलिया की सड़कों पर चल रहे लोगों पर अंधाधुंध फायरिंग की. लेकिन प्रशासन की ओर से प्लानिंग की कमी थी. अधिकतर प्रशासनिक केंद्र उनके कब्जे के बाहर चले गए थे. 

सरकार का गठन
दूसरी ओर स्वतंत्रता सेनानियों ने अलग-अलग पंचायतों का गठन कर लिया था. शहर की रक्षा के लिए कांग्रेस के स्वयंसेवकों को नियुक्त किया गया. अब तक बलिया शहर पर स्वतंत्रता सेनानियों का ठीक-ठीक नियंत्रण हो गया था. 20 अगस्त 1942 को बलिया के लिए 'स्वतंत्रता' की घोषणा कर दी गई. चित्तू पांडे के नेतृत्व में सरकार का गठन हुआ. एक सरकारी रिपोर्ट के अनुसार, जिले के दस में से सात पुलिस स्टेशन स्वतंत्रता सेनानियों के हाथों में थे और कांग्रेस राज की घोषणा कर दी गई थी.

मजिस्ट्रेट खुद नहीं आए, नोट भेजा
22 अगस्त 1942 को, चित्तू पांडे ने एक बैठक बुलाई जिसमें उन्होंने जिला मजिस्ट्रेट को आमंत्रित किया. लेकिन वो आए नहीं. लेकिन बैठक में पढ़ने के लिए एक नोटिस भेजा. लिखा कि जिले में आतंकवाद फैलाने वाले सभी लोगों को गिरफ्तार किया जाएगा.

22-23 अगस्त की रात में ब्रिटिश सरकार के गवर्नर जनरल हैलेट ने बनारस के कमिश्नर नेदर सोल को बलिया का प्रभारी जिलाधिकारी बना दिया. नेदर सोल फौज के साथ बलिया पहुंचा. उसने चित्तू पांडे की सरकार को उखाड़ फेंका. खूब खून-खराबा हुआ. करीब 84 लोग शहीद हुए. इसके बाद बलिया के लोगों पर ब्रिटिश पुलिस और सेना का आतंक जारी हो गया, जिसमें लूटपाट, बलात्कार, तोड़फोड़, मारपीट, गोलीबारी और आगजनी का तांडव मचा हुआ था.

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